कैसे होगी प्रेम की, उसे कभी पहचान।
जो धन को ही मानता धर्म, कर्म, ईमान।।
युगों युगों से ही रहा, यही सफलता मंत्र।
चाह, पहल, गतिशीलता, अनथक श्रम व सु-यंत्र।।
जो समर्थ उसके लिए अगम कौन सी बात।
खारे सागर से करे, सूरज मृदु बरसात।।
दुष्ट तजें कब दुष्टता, कुछ भी कह ले नीति।
उनको जीवन भर रूचे, अत्याचार, अनीति।।
दुनिया एक सराय सी, आते, जाते लोग।
जो जैसा खर्चा करे, वैसा भोगे भोग।।
हो जाती वैसी प्रजा, जैसा होता भूप।
रहा लोक का आचरण, नायक के अनुरूप।।
हाथ नहीं कुछ आ सका, गा कर थोथे गान।
मिला हमेशा ही उसे, जिसने ठानी ठान।।
रिश्तों की क्या अहमियत, जब तक नहीं सनेह।
बिना प्राण किस काम की, सुघड़, सुसज्जित देह।।
होठो पर मुस्कान रख, बन जायेंगे काम।
सरल हृदय के साथ प्रभु, हर दिन आठो याम।।
मन खाली-खाली रहा, करके संचित कोष।
सब निधियॉं फीकी लगीं, जब आया संतोष।।
बातें हों रस से भरी, परहित वाले काम।
लोग लिखेंगे आपका, अपनों में ही नाम।।
इस विराठ संसार में, दुःखी न केवल आप।
सब की ही मजबूरियाँ, सब के ही सन्ताप।।
परिवर्तन करती रह, नित्य समय की धार।
प्रेम एक-रस ही मिला, परखा बारम्बार।।
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
जो धन को ही मानता धर्म, कर्म, ईमान।।
युगों युगों से ही रहा, यही सफलता मंत्र।
चाह, पहल, गतिशीलता, अनथक श्रम व सु-यंत्र।।
जो समर्थ उसके लिए अगम कौन सी बात।
खारे सागर से करे, सूरज मृदु बरसात।।
दुष्ट तजें कब दुष्टता, कुछ भी कह ले नीति।
उनको जीवन भर रूचे, अत्याचार, अनीति।।
दुनिया एक सराय सी, आते, जाते लोग।
जो जैसा खर्चा करे, वैसा भोगे भोग।।
हो जाती वैसी प्रजा, जैसा होता भूप।
रहा लोक का आचरण, नायक के अनुरूप।।
हाथ नहीं कुछ आ सका, गा कर थोथे गान।
मिला हमेशा ही उसे, जिसने ठानी ठान।।
रिश्तों की क्या अहमियत, जब तक नहीं सनेह।
बिना प्राण किस काम की, सुघड़, सुसज्जित देह।।
होठो पर मुस्कान रख, बन जायेंगे काम।
सरल हृदय के साथ प्रभु, हर दिन आठो याम।।
मन खाली-खाली रहा, करके संचित कोष।
सब निधियॉं फीकी लगीं, जब आया संतोष।।
बातें हों रस से भरी, परहित वाले काम।
लोग लिखेंगे आपका, अपनों में ही नाम।।
इस विराठ संसार में, दुःखी न केवल आप।
सब की ही मजबूरियाँ, सब के ही सन्ताप।।
परिवर्तन करती रह, नित्य समय की धार।
प्रेम एक-रस ही मिला, परखा बारम्बार।।
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
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