Tuesday, November 15, 2011

यह जीवन बहुरूपिया

रात-दिवस, पूनम-अमा, सुख-दुःख, छाया-धूप।
यह जीवन बहुरूपिया, बदले कितने रूप।।

समय बदलता देख कर, कोयल है चुपचाप।
पतझड़ में बेकार है, कुहू- कुहू का जाप।।

हंसों को कहने लगे, ऑंख दिखाकर काग।
अब बहुमत का दौर है, छोड़ो सच के राग।।

अपमानित है आदमी, गोदी में है स्वान।
मानवता को दे रहे, हम कैसी पहचान।।

मोती कितना कीमती, दो कौड़ी की सीप।
पथ की माटी ने दिये, जगमग करते दीप।।

लेने देने का रहा, इस जग में व्यवहार।
जो देगा सो पायेगा, इतना ही है सार।।

इस दुनिया में हर तरफ, बरस रहा आनन्द ।
वह कैसे भीगे, सखे! जो ताले में बन्द।।

जीवन कागज की तरह, स्याही जैसे काम।
जो चाहो लिखते रहो, हर दिन सुबहो-शाम।।

नयी पीढ़ियों के लिए, जो बन जाते खाद।
युगों युगों तक सभ्यता, रखती उनको याद।।

कौन महत्तम, कौन लघु, सब का अपना सत्व।
सदा जरूरत के समय, मालुम पड़ा महत्व।।

-त्रिलोक सिंह ठकुरेला

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