Saturday, May 28, 2011

दोहे

खड़े बिजूके खेत में, बनकर पहरेदार।
भोले-भाले डर रहे, चतुर चरें सौ बार।।

बहेलिया और चील में, पनपा गहरा मेल।
कबूतरों के साथ में, खेलें खेल गुलेल।।

समझ गया है मेमना, अब शेरों की चाल।
बिना बात दुहरायेंगे, फिर फिर वही सवाल।।

कौंध रही हैं बिजलियाँ, हालत हैं विपरीत।
मन की कोयल डर रही, कैसे गाये गीत।।


दुविधा की गठरी लिये, सीता हुई उदास।
निरपराध को राम ही, भेज रहे वनवास।।

यह गरीब की झोंपड़ी, साँझ खड़ी है मौन।
खाने के लाले यहाँ, दीप जलाये कौन।।

-त्रिलोक सिंह ठकुरेला

3 comments:

  1. बहुत पर्भावशाली दोहे हैं, कभी कभी ही कवि ऐसे दोहे लिख पाते हैं, ठकुरेला जी को वधाई।

    -सन्तोष कुमार

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  2. खड़े बिजूके खेत में, बनकर पहरेदार।
    भोले-भाले डर रहे, चतुर चरें सौ बार।।

    भ्रष्टाचार की स्थिति को यह दोहा आईने की तरह से स्पष्ट कर रहा है।

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  3. बहुत अच्छा




    प्रदीप
    सिरोही (राजस्थान)

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