-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
करघा व्यर्थ हुआ
कबीर नेबुनना छोड़ दिया
काशी में
नंगों का बहुमत
अब चादर की
किसे ज़रूरत
सिर धुन रहे कबीर
रुई का
धुनना छोड़ दिया ।
धुंध भरे दिन
काली रातें
पहले जैसी
रही न बातें
लोग काँच पर मोहित
मोती
चुनना छोड़ दिया ।
तन-मन थका
गाँव-घर जाकर
किसे सुनायें
ढाई आखर
लोग बुत हुए
सच्ची बातें
सुनना छोड़ दिया ।
करघा व्यर्थ हुआ
कबीर ने
बुनना छोड़ दिया ।।
बहुत सुन्दर नवगीत है।
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