Wednesday, June 1, 2011

करघा व्यर्थ हुआ (नवगीत)

-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
करघा व्यर्थ हुआ
कबीर ने
बुनना छोड़ दिया

काशी में
नंगों का बहुमत
अब चादर की
किसे ज़रूरत
सिर धुन रहे कबीर
रुई का
धुनना छोड़ दिया ।

धुंध भरे दिन
काली रातें
पहले जैसी
रही न बातें
लोग काँच पर मोहित
मोती
चुनना छोड़ दिया ।

तन-मन थका
गाँव-घर जाकर
किसे सुनायें
ढाई आखर
लोग बुत हुए
सच्ची बातें
सुनना छोड़ दिया ।
करघा व्यर्थ हुआ
कबीर ने
बुनना छोड़ दिया ।।

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