Friday, June 10, 2011

सब उन्मादे हैं

- त्रिलोक सिंह ठकुरेला
किसे दोष दें
इस बस्ती में
सब उन्मादे हैं ।


कूएँ में ही
भाँग पड़ी है
गाँव हुआ पागल
बूँद बूँद में
नशा भरा है
छलक रही छागल

बौराई बातों की गठरी
सिर पर लादे हैं
किसे दोष दें
इस बस्ती में
सब उन्मादे हैं ।


नियम कायदे
रखे ताक पर
करते मनमानी
खूँटी पर
सूखती सभ्यता
माँग रही पानी

मोहक
मुस्कानों के पीछे
झूठे वादे हैं
किसे दोष दें
इस बस्ती में
सब उन्मादे हैं


अन्दर बाहर
बात बात पर
हर दिन दंगल है
मन में
खरपतवारों की
फसलें हैं, जंगल हैं

जिस डाली पर
उसको काटें
सीधे-सादे हैं
किसे दोष दें
इस बस्ती में
सब उन्मादे हैं ।

-त्रिलोक सिंह ठकुरेला

3 comments:

  1. बहुत अच्छा नवगीत है, ठकुरेला जी को वधाई।
    डा० जगदीश व्योम

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  2. bahut hi uttam kavita se aaj k yug ka pritibimb dikhaya h.




    saurav rana

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  3. बहुत उत्तम कविता के madhyam से आपने आज ke युग का pritivimb dikhaya है...



    saurav rana

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