Tuesday, July 5, 2011

सीता डरी हुई


-त्रिलोकसिंह ठकुरेला

पर्ण कुटी के पास
दशानन,
सीता डरी हुई।

स्वर्ण-मृगों के
मोहजाल में
राम चले जाते
लक्ष्मण को
पीछे दौड़ाते
दुनिया के नाते,
उधर कपट से
मारीचों की
वाणी भरी हुई।

छद्म आवरण पहन
कुटिलता
फैलाती झोली,
वाग्जाल में
उलझ रही हैं
सीताएँ भोली,
विश्वासों की
मानस-काया तो
अधमरी हुई ।

हो भविष्य के पन्नों पर
ऐसा
कोई कल हो,
व्याघ्र दृष्टि की
लोलुपता का
कोई तो हल हो,
अभी व्यवस्था
दुष्ट जनों की ही
सहचरी हुई।

3 comments:

  1. बहुत अच्छा नवगीत है, ठकुरेला जी को वधाई।
    डा० जगदीश व्योम

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  2. छद्म आवरण पहन
    कुटिलता
    फैलाती झोली,
    वाग्जाल में
    उलझ रही हैं
    सीताएँ भोली,
    विश्वासों की
    मानस-काया तो
    अधमरी हुई ।

    वर्तमान समय को बहुत अच्छी तरह से व्याख्यायित करते हुए समाज की स्थिति को जीवन्त प्रतीकों के माध्यम से नवगीत में प्रस्तुत करने के लिए वधाई ठकुरेला जी को । इतने अच्छे नवगीत बहुत कम लोग ही लिख पा रहे हैं, इस गति को बनाये रखें।

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  3. छद्म आवरण पहन
    कुटिलता
    फैलाती झोली,
    वाग्जाल में
    उलझ रही हैं
    सीताएँ भोली,
    विश्वासों की
    मानस-काया तो
    अधमरी हुई । .....

    बहुत अच्छा नवगीत

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