Wednesday, November 16, 2011

आमंत्रण देता रहा

आमंत्रण देता रहा, सदियों से आका
वही बुलन्दी तक गया, काट सका जो पा।।

भाग्य भरोसे जो रहा, दुःखमय उसका अंत।
कर्मभूमि है यह जगत, कहते आये संत।।

कर फैलाना छोड़कर, निज कर ओर निहार।
करनी कर मिल जायेंगे, जीवन के फल चार।।

दिन बीता, रजनी हुई फिर आयेगी भोर।
ढांढस रख, संभावना छिपी हुई हर ओर।।

दर्पण जैसा ही रहा, इस जग का व्यवहार।
जो बांटे जिस भाव को, पाये बारम्बार।।

केवल मीठी बात से, नही बनेगा काम।
काम पराये आ सकें, यही बात अभिराम।।

कहते आये सब यही, मतलब का संसार।
वही प्रतिष्ठा पा सका, जिसने बांटा प्यार।।

बूँद
दो-कोड़ी का है, सखे ! बिन पानी भूगोल।।

चंपा, बेला, केतकी, जूही, कमल, गुलाब।
पानी से ही रह सकी, सब के ऊपर आब।।

पानी से सींचे बिना, कभी न उपजे धान।
पानी बिना न पा सके, मोती, मानुष मान।।

मानव की करतूत से, पानी हुआ अषुद्ध।
शायद पानी के लिए, हों भविष्य में युद्ध।।

पानी का ख़र्चा सखे ! करें न ऊल-जलूल।
सम्भव है महॅंगी पड़े, लोगों की यह भूल।।

-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
-बूँद है कीमती, पानी है अनमोल।

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