ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा, काली-गोरी देह।
मिटते देखे भेद सब, जब-जब पनपा नेह।।
मोती कितना कीमती दो कौड़ी की सीप।
पथ की माटी ने दिये, जगमग करते दीप।।
जन्म, मरण, भोजन, शयन, रति सबके ये काम।
कुछ ऐसा कर बावरे, जग पहचाने नाम।।
आते जाते टोकिये, गली खड़ा अनजान।
बदनीयत की आग से, झुलसें नही मकान।।
जीवन कागज की तरह, स्याही जैसे काम।
जो चाहो लिखते रहो, हर दिन सुबहो शाम।।
इतराता है किसलिए, देख जगत के ठाठ।
रह जायेगा सब यहां, साथ निभाये काठ।।
धूप, चांदनी, घन, पवन, करते नहीं दुराव।
रे मन ढ़ोता किसलिए, ऊॅंच-नीच के भाव।।
राजा, रानी, नागरिक, सेवक, वणिक, फकीर।
सब को जाना एक दिन, भव सागर के तीर।।
रंग रूप सबका अलग, अलग अलग आकार।
चाक वही, माटी वही, सब का वही कुम्हार।।
पावस ऋतु, गहरी नदी, जल का तेज बहाव।
हे हरि तेरा आसरा, डगमग डोले नाव।।
आओ, सब मिल कर करें, पर्यावरण सुधार।
पानी, पेड़ों की रहे, धरती पर भरमार ।।
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
मिटते देखे भेद सब, जब-जब पनपा नेह।।
मोती कितना कीमती दो कौड़ी की सीप।
पथ की माटी ने दिये, जगमग करते दीप।।
जन्म, मरण, भोजन, शयन, रति सबके ये काम।
कुछ ऐसा कर बावरे, जग पहचाने नाम।।
आते जाते टोकिये, गली खड़ा अनजान।
बदनीयत की आग से, झुलसें नही मकान।।
जीवन कागज की तरह, स्याही जैसे काम।
जो चाहो लिखते रहो, हर दिन सुबहो शाम।।
इतराता है किसलिए, देख जगत के ठाठ।
रह जायेगा सब यहां, साथ निभाये काठ।।
धूप, चांदनी, घन, पवन, करते नहीं दुराव।
रे मन ढ़ोता किसलिए, ऊॅंच-नीच के भाव।।
राजा, रानी, नागरिक, सेवक, वणिक, फकीर।
सब को जाना एक दिन, भव सागर के तीर।।
रंग रूप सबका अलग, अलग अलग आकार।
चाक वही, माटी वही, सब का वही कुम्हार।।
पावस ऋतु, गहरी नदी, जल का तेज बहाव।
हे हरि तेरा आसरा, डगमग डोले नाव।।
आओ, सब मिल कर करें, पर्यावरण सुधार।
पानी, पेड़ों की रहे, धरती पर भरमार ।।
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
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