Wednesday, November 16, 2011

सामयिक दोहे

अब उपवन की क्यारियां, याद न आती भूल।
सब की बैठक में सजे, बस कागज के फूल।।

गली-गली में फिर रहे, बधिक बदल कर वेश।
मन में छिपी कटारियां, वाणी में उपदेश।।

नजरें उसको ढूंढती, बार-बार जा द्वार।
उसका आना बंद है, जब से मिला उधार।।

सुबह, शाम, दिन, रात नित, जिसकी चाही खैर।
वह छोटी सी बात पर, निभा रहा है बैर।।

समय बदलता देखकर, चुप है बूढ़ा बाप।
बेगानों सा हो गया, घर में अपने आप।।

बेटी कैसे देखती, नवजीवन की भोर।
जब पत्थर जैसे हुए, माता-पिता कठोर।।

भला परायों से करे, कोई भी क्या आस।
तोड़ रहे हैं आजकल, अपने ही विश्वास।।

कैसे चौकन्ना रहे, कोई व्यथित शिकार।
ले आया है अब बधिक, नये-नये हथियार।।

सपने जैसी हो गयीं, सपनों वाली रात।
जागे हैं यह सोचकर, करे न काई घात।।

सब अपने दुःख से दुःखी, सब ही दिखे अधीर।
कौन कहे किससे यहॉं, अपने मन की पीर।।

मंजिल क्यों मिलती उसे, बैठा रहा उदास।
स्वप्न उसी के सच हुए, जिसके मन थी आस।।

बुरा सोचता हो कोई, किन्तु सोच तू नेक।
जैसे को तैसा मिलें, बात याद रख एक।।

-त्रिलोक सिंह ठकुरेला

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