Wednesday, November 16, 2011

सहमा लाल गुलाल

वही गगन, वह चन्द्रमा, वही पहर, वह रात।
पर साजन के बिन सखी! कहॉं रही वह बात।।

 विरहिन के मन गहन ने, जब भी भरी उड़ान।
प्रियतम तक पहुँची ख़बर, सका न कोई जान।।

सुन प्रियतम का आगमन, दहके गोरे गाल।
सहमी लाली भोर की, सहमा लाल गुलाल।।

अहंकार को छोड़ कर, ख़ूब झुका आकाश।
धरती के मन में दिखी, जब मिलने की प्यास।।

कलियों के घूंघट उठे, भ्रमर उड़े उस ओर।
मिलने की उम्मीद फिर, ले कर आयी भोर।।

गोरी गोरे रूप पर, इतरायी सौ बार।
जब प्रियतम की बॉंह के, पडे़ गले में हार।।

मिटीं बीच की दूरियाँ, हुई धड़कनें तेज़।
टकरायीं सॉंसे गरम, कितनी ख़ुश थी सेज।।

मिलने की घड़ियॉं सुखद, किसे याद श्रृंगार?
गिरे ख़ुशी में झूम कर, गजरा, बिंदी, हार।।

दोनों ने मिल मिलन के, ऐसे गाये राग।
दिन उड़ गये कपूर से, रातें बीतीं जाग।।

याद न आया और कुछ, भूल गये सब काम।
ऑंखों-ऑंखों में हुई, जब बातें अविराम।।


-त्रिलोक सिंह ठकुरेला

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