बादल में बिजली बसी, सागर में है आग।
मुझे न जाने क्या हुआ, रातें काटूँ जाग।।
जल-तरंग जैसी उठीं, तन में कई तरंग।
मन की कलियॉं खिल उठीं, महक उठा अंग-अंग।।
खजुराहो उद्विग्न है, शर्मिंदा है ताज।
मैं अपने ही रूप पर, वारी जाऊँ आज।।
होंठ गुनगुनाने लगे, छलक रहा मकरंद।
मन में भरी मिठास सी, रह-रह गाये छंद।।
कौन बजाये बॉंसुरी, मन के तट की ओर।
मंत्र-मुग्ध करने लगा, मुझे कौन चितचोर।।
पागल-पन सा छा गया, धार प्रेम का छत्र।
स्वप्न प्रेम के ही दिखे, यत्र-तत्र-सर्वत्र।।
दर्पण के सन्मुख खड़ी फिर-फिर देखूँ रूप।
तन-मन रोशन कर रही, यह यौवन की धूप।।
प्रीति वाटिका में खिलीं, जब से कलियॉं चार।
मन-भॅंवरा पागल हुआ, बस भाया अभिसार।।
जब उसके दिल से जुडे़, मेरे दिल के तार।
यही समझ में आ सका, प्रेम जगत का सार।।
मन की सांकल खोलकर, घुस आया है कौन।
भीतर कोलाहल घना, बाहर-बाहर मौन।।
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
मुझे न जाने क्या हुआ, रातें काटूँ जाग।।
जल-तरंग जैसी उठीं, तन में कई तरंग।
मन की कलियॉं खिल उठीं, महक उठा अंग-अंग।।
खजुराहो उद्विग्न है, शर्मिंदा है ताज।
मैं अपने ही रूप पर, वारी जाऊँ आज।।
होंठ गुनगुनाने लगे, छलक रहा मकरंद।
मन में भरी मिठास सी, रह-रह गाये छंद।।
कौन बजाये बॉंसुरी, मन के तट की ओर।
मंत्र-मुग्ध करने लगा, मुझे कौन चितचोर।।
पागल-पन सा छा गया, धार प्रेम का छत्र।
स्वप्न प्रेम के ही दिखे, यत्र-तत्र-सर्वत्र।।
दर्पण के सन्मुख खड़ी फिर-फिर देखूँ रूप।
तन-मन रोशन कर रही, यह यौवन की धूप।।
प्रीति वाटिका में खिलीं, जब से कलियॉं चार।
मन-भॅंवरा पागल हुआ, बस भाया अभिसार।।
जब उसके दिल से जुडे़, मेरे दिल के तार।
यही समझ में आ सका, प्रेम जगत का सार।।
मन की सांकल खोलकर, घुस आया है कौन।
भीतर कोलाहल घना, बाहर-बाहर मौन।।
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
बहुत सुन्दर दोहे
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